भगवद्गीता के 20 लोकप्रिय, प्रसिद्ध श्लोक भावार्थ के साथ | Bhgawad geeta popular shlokas in hindi with meaning
भगवद्गीता के फेमस श्लोक | Bhagwat geeta shlok in hindi with meaning
भगवद्गीता श्लोक 1.)
वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामूपाश्रिताः।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मदभावमागताः।।
भावार्थ : इस संसार में राग भय क्रोध से सर्वथा रहित होकर ईश्वर में ही तल्लीन, उन्हें पर ही आश्रित रहते हुए ज्ञान रूप तब से पवित्र हुआ भक्त परमात्मा भाव को प्राप्त हो जाता है।
भगवद्गीता श्लोक 2.)
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रम्हा सनातनम।
नायं लोकोअसत्ययज्ञस्य कुतोअन्यः कुरुसत्तम।।
भावार्थ : कर्तव्य कर्म रूपी यज्ञ से बचे हुए अमृत का अनुभव करने वाले सनातन परब्रह्मा परमात्मा को प्राप्त होते हैं यज्ञ ना करने वाले मनुष्य के लिए यह मनुष्य लोग भी सुखदायक नहीं, फिर पर लोग कैसे सुखदायक होगा।
भगवद्गीता श्लोक 3.)
पितासी लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यसच गुरुगरियान।
न त्वत्समोअसत्यभ्यधिकः कुतोअन्यो लोकत्रयप्यप्रतिमप्रभाव।।
भावार्थ : अर्जुन बोले हे परमेश्वर.! आप ही इस चराचर जगत के पिता आप ही पूजनीय और आप ही गुरुओं के महान गुरु हैं। हे अनंत प्रभावशाली भगवान इस त्रिलोक ने आप के समान दूसरा और कोई नहीं, फिर अधिक तो हो ही कैसे सकता है।
भगवद्गीता श्लोक 4.)
श्रीभगवानुवाच इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम।
विवस्वानम प्राह मनुरिक्सवाक्वेअब्रवीत।।
भावार्थ : श्री भगवान कहते हैं पहले मैंने इस अविनाशी योग को सूर्य से कहा था, सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा।
भगवद्गीता श्लोक 5.)
न ही कश्चिक्षणमपी जातु तिइत्यकर्मकृत्य।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्व प्रकृतिजैगुरणेह।।
भावार्थ : यह निश्चित है कि कोई भी मनुष्य किसी भी समय में बिना कर्म किए हुए क्षण मात्र भी नहीं रह सकता समस्त मनुष्य जीव समुदाय को प्रकृति द्वारा कर्म करने पर बाध्य किया जाता है।
भगवद्गीता श्लोक 6.)
अजोअपि सन्नव्यायात्मा भुतानामीश्वरोअपि सन।
प्रकृतिम स्वामधिष्ठाय सम्भावमयातम्मायया।।
भावार्थ : ईश्वर अजन्मा और अविनाशी स्वरूप होते हुए भी तथा संपूर्ण प्राणियों के भगवान होते हुए भी दूसरों के कल्याण के लिए अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी जोगमाया से इस संसार में प्रकट होते हैं
भगवद्गीता श्लोक 7.)
सर्वधर्मानपरित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वाम सर्वपापेभ्यो मोक्षयिस्यामि मा शुचः।।
भावार्थ : हे अर्जुन सभी धर्मों को त्याग कर अर्थात हर आश्रय को त्याग कर केवल मेरी शरण में आओ, मैं (श्री कृष्ण) तुम्हें सभी पापों से मुक्ति दिला दूंगा, इसलिए शौक मत करो
भगवद्गीता श्लोक 8.)
सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तम है कृष्ण है यादव है सखेति।
अजानता महिमानम तवेद्र मया तमादातप्रणयेन वापी।।
भावार्थ : अर्जुन बोले हे कृष्ण है यादव हे सखे मैंने आप की महिमा और आप के स्वरूप को ना जानते हुए “मेरे सखा है” ऐसा मानकर प्रमाद से अथवा प्रेम से हट पूर्वक जो कुछ कहा है उसके लिए मैं क्षमा प्रार्थी हूं।
भगवद्गीता श्लोक 9.)
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।
भावार्थ : गुण और कर्मों के विभाग से चातुर्वण्य मेरे द्वारा रचा गया है। यद्यपि मैं उसका कर्ता हूँ, तथापि तुम मुझे अकर्ता और अविनाशी जानो।
भगवद्गीता श्लोक 10.)
एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः।
कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्।।
भावार्थ : पूर्व के मुमुक्ष पुरुषों द्वारा भी इस प्रकार जानकर ही कर्म किया गया है; इसलिये तुम भी पूर्वजों द्वारा सदा से किये हुए कर्मों को ही करो।।
भगवद्गीता श्लोक 11.)
किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।।
भावार्थ : कर्म क्या है और अकर्म क्या है? इस विषय में बुद्धिमान पुरुष भी भ्रमित हो जाते हैं। इसलिये मैं तुम्हें कर्म कहूँगा, (अर्थात् कर्म और अकर्म का स्वरूप समझाऊँगा) जिसको जानकर तुम अशुभ (संसार बन्धन) से मुक्त हो जाओगे।।
भगवद्गीता श्लोक 12.)
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।
भावार्थ : कर्म का (स्वरूप) जानना चाहिये और विकर्म का (स्वरूप) भी जानना चाहिये ; (बोद्धव्यम्) तथा अकर्म का भी (स्वरूप) जानना चाहिये (क्योंकि) कर्म की गति गहन है।।
भगवद्गीता श्लोक 13.)
कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।
स बुद्धिमान् मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्।।
भावार्थ : जो पुरुष कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है, वह योगी सम्पूर्ण कर्मों को करने वाला है।।
भगवद्गीता श्लोक 14.)
संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्िचतम्।।
भावार्थ : अर्जुन ने कहा हे — कृष्ण ! आप कर्मों के संन्यास की और फिर योग (कर्म के आचरण) की प्रशंसा करते हैं। इन दोनों में एक जो निश्चय पूर्वक श्रेयस्कर है, उसको मेरे लिए कहिये।।
भगवद्गीता श्लोक 15.)
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः।
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः।।
भावार्थ : श्रीभगवान् ने कहा — जो पुरुष कर्मफल पर आश्रित न होकर कर्तव्य कर्म करता है, वह संन्यासी और योगी है, न कि वह जिसने केवल अग्नि का और क्रियायों का त्याग किया है।
भगवद्गीता श्लोक 16.)
भूय एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वचः।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया।।
भावार्थ : श्रीभगवान् बोले — हे महाबाहो अर्जुन ! मेरे परम वचनको तुम फिर भी सुनो, जिसे मैं तुम्हारे हितकी कामनासे कहूँगा; क्योंकि तुम मेरेमें अत्यन्त प्रेम रखते हो।
भगवद्गीता श्लोक 17.)
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्।।
भावार्थ : श्री भगवान् ने कहा — (ज्ञानी पुरुष इस संसार वृक्ष को) ऊर्ध्वमूल और अध:शाखा वाला अश्वत्थ और अव्यय कहते हैं; जिसके पर्ण छन्द अर्थात् वेद हैं, ऐसे (संसार वृक्ष) को जो जानता है, वह वेदवित् है।
भगवद्गीता श्लोक 18.)
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।
भावार्थ : श्री भगवान् ने कहा हे निष्पाप (अनघ) अर्जुन इस श्लोक में दो प्रकार की निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गयी है ज्ञानियों की (सांख्यानां) ज्ञानयोग से और योगियों की कर्मयोग से।
भगवद्गीता श्लोक 19.)
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
भावार्थ : हे भारत (अर्जुन), जब-जब धर्म ग्लानि यानी उसका लोप होता है और अधर्म में वृद्धि होती है, तब-तब मैं (श्रीकृष्ण) धर्म के अभ्युत्थान के लिए स्वयम् की रचना करता हूं अर्थात अवतार लेता हूं।
भगवद्गीता श्लोक 20.)
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥
भावार्थ : श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण यानी जो-जो काम करते हैं, दूसरे मनुष्य (आम इंसान) भी वैसा ही आचरण, वैसा ही काम करते हैं। वह (श्रेष्ठ पुरुष) जो प्रमाण या उदाहरण प्रस्तुत करता है, समस्त मानव-समुदाय उसी का अनुसरण करने लग जाते हैं।
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